शनिवार, 2 अप्रैल 2011

प्रेम काव्य-महाकाव्य --तृतीय सुमनान्जलि--प्रेम-भाव- रचना.... मैं शाश्वत हूँ, ---डा श्याम गुप्त ......


  प्रेम काव्य-महाकाव्य--गीति विधा  --     रचयिता---डा श्याम गुप्त  

  -- प्रेम के विभिन्न  भाव होते हैं , प्रेम को किसी एक तुला द्वारा नहीं  तौला जा सकता , किसी एक नियम द्वारा नियमित नहीं किया जासकता ; वह एक विहंगम भाव है | प्रस्तुत  सुमनांजलि- प्रेम भाव को ९ रचनाओं द्वारा वर्णित किया गया है जो-प्यार, मैं शाश्वत हूँ, प्रेम समर्पण, चुपके चुपके आये, मधुमास रहे, चंचल मन, मैं पंछी आजाद गगन का, प्रेम-अगीत व प्रेम-गली शीर्षक से  हैं |---प्रस्तुत है द्वितीय रचना....मैं  शाश्वत हूँ .....





अजर अमर हूँ , मैं शाश्वत हूँ ,
आनंद घन हूँ, मैं अविनाशी |
पति-पत्नी,माँ-पितु,सुत,भगिनी,
भ्राता, पावन मन का बासी  ||
 
सखा-सखी,प्रिय-प्रिया,भक्त-प्रभु,
के  मन  में  भी मैं रहता हूं। 
अजर अमर हूं मैं शाश्वत हूं,
अन्तर्मन में, मैं बसता हूं ॥
 
आलिन्गन,इन्गित औ लज्जा,
मृदुहास, किलोल , मधुर वैना |
साथ में खाना, संग खिलाना,
उपहारों  का   लेना  देना || 

मन की बातें प्रिय से कहना,
प्रिय-मन की बातें सुन लेना |
ये सब मेरे भाव-दूत हैं,
मैं ही इन सबमें रहता हूँ ||

मैं शाश्वत हूँ, कब मिटाता हूँ,
मन में, मैं अंकित रहता हूँ ||

ईश्वर में जो भाव रमे तब,
भक्ति-ईश की बन जाता हूँ  |
जो मर मिटें देश की खातिर,
देश-भक्ति मैं कहलाता हूं ||
बचपन का वात्सल्य बनूँ मैं ,
पितृ-प्रेम, मातृत्व बनूँ मैं |
प्रीति बनूँ ,मन डोर लगाऊँ ,
प्रियतम-प्रिय का तत्व बनूँ मैं ||

भगिनी के स्नेह की राखी ,
बनूँ, कलाई पर बांध जाऊं |
प्रियतम के गोरे हाथों में,
खन-खन चूड़ी बन लहराऊँ ||

सखा -सखी बन रहूँ, मित्रता,
साथ रहूँ मैं बनकर साथी |
दूर देश में नाता रिश्ता-
हो, पाती मन बन जाता हूँ ||
 
मैं शाश्वत हूँ,रोम रोम में,
कण कण में बस जाता हूँ ||
 
बन आसक्ति, मोह के बंधन,
हो विरक्ति, छूटें भव बंधन | 
मैं अनुराग-राग तन मन का,
श्रृद्धा, जब श्रृद्धानत  हो मन ||
 
जड़ जंगम में,धन वैभव में,
मैं सुख हूँ, मैं ही आनंद |
ज्ञान तत्व में रम जाता हूँ,
मैं ही बन कर परमानंद ||
 
राधा -कृष्ण का नर्तन बनकर,
रस-लीला का भाव बनूँ  में, |
ईशत अहंकार बन करके,
आदि-सृष्टि आरम्भ करूँ मैं ||
 
तन मन में मैं कामबीज बन,  
मैं ही रतिसुख बन जाता हूँ |
मन मंदिर में रच बस जाता,
प्यार मैं ही बन जाता हूँ ||

मैं शाश्वत हूँ, अविनाशी हूँ ,
मन में रच-बस जाता हूँ ||

प्रेम-प्रीति बंधन मन भाये,
प्रियतम-प्रिय की चाहत मैं हूँ |
योगी  लीन योग में जब हो,
अंतर-शब्द अनाहत, मैं हूँ ||

प्रेम प्रीति ,रस-रीति भावना ,
और सुरति के  सब व्यापार |
पति-पत्नी की प्रणय-रीति बन,
प्यार का बन जाता संसार ||
 
कोमल भाव ह्रदय में जितने ,
सब मेरी ही हैं भाषाएँ |
प्रीति भरे जितने भी रस हैं,
सब मेरी ही हैं शाखाएं ||

प्रेम करे जो, वो ही जाने,
रीति-प्रीति को वो सनमाने |
जिसने भाव भरा मन समझा,
प्रेम-तत्व को वो पहचाने ||
प्यार ही ईश्वर, वो ही माया,
जिसके मन में प्यार समाया |
उसने ही खुद को पहचाना,
परम-तत्व में लय हो पाया ||
 
मैं शाश्वत हूँ कब मिटता हूँ ,    
जग के कण कण में रहता हूँ |
अजर अमर, अंतर्घट बासी,
रोम रोम में  मैं रहता हूँ ||
  
 
 

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