निरंतर
दुआ खुदा से करता हूँ
इतनी बुलंदी
पर ना पहुचाना मुझे
नीचे उतरूँ
तो ना पहचाने कोई मुझे
ना बात
दिल की कर सकूं
ना हंस कर
गले मिल सकूं किसी से
अकेले ज़िन्दगी काटनी पड़े
हर दिन रोना पड़े
या तो सबको बुलंदी पर
पहुँचाओ
या उनके साथ ही रहने दो
वो बुलंदी किस काम की
जब कोई अपना
साथ ना रह सके
10—03-2011
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर
5 टिप्पणियाँ:
सम्माननीय डा. राजेंद्र जी ..सुन्दर रचना ..वो बुलंदी किस काम की जब कोई अपना साथ न रह सके --खूब बनी ,सच है -बधाई हो -
शुक्लाभ्रमर५
भरमार का दर्द और दर्पण
सुन्दर कविता, आपकी रोजाना उपस्थिति देखकर मन प्रशन्न हो जाता है. शुभकामना.
bilkul sahi kaha hai aapne ..jab apne hi sath n ho to trakki kis kam ki ....badhai .
बहुत सही कहा है "वह बुलंदी किस काम की "
बधाई |
आशा
बधाई |
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