गुरुवार, 24 मार्च 2011

क्यों सोचते तुम हो अकेले



क्यों सोचते
तुम हो अकेले 
वो भी साथ तुम्हारे
जो नाम तुम्हारा
नफरत से लेते
दिन रात तुम्हें कोसते
चर्चे शहर में करते
चाहते नहीं तो क्या
निरंतर याद तो करते
जो भी  है दिल में
साफ़ साफ़ बताते 
बेहतर हैं उनसे
जो अपना तो कहते
दिल में जहर रखते 
भूले से याद ना करते
देख कर मुस्काराते
पीछे से मुंह चिडाते
इधर हाथ मिलाते
उधर खंजर मारते
24-03-03
497—167-03-11

1 टिप्पणियाँ:

हरीश सिंह ने कहा…

क्या करेंगे जनाब दुनिया की यही रीति है,

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