गुमसुम -गुमसुम, खोया खोया
आसमान को तकता बचपन !
चिड़ियों के पंखों में
पशुओं की दौड़ों में
खुद को तलाशता बचपन !
दूर कहीं झंकृत संगीत
थापों की थप- थप
रुनझुन- रुनझुन घुंघरू की
खुद ही तरसता बचपन !
घर के आँगन में,
भीड़ में, एकांत में,
कण- कण से कण-कण में
माँ को ढूंढ़ता बचपन !
एहसासों में कृन्दन
अश्रु नेत्रपटल की
ओट में,
जीवन के आयामों से
लोगों से, दीवारों से
खुद को बहलाता बचपन !
दूर कहीं --
गुमसुम-गुमसुम खोया-खोया
आसमान को तकता बचपन !!
प्रियंका राठौर
5 टिप्पणियाँ:
बहुत संवेदनशील रचना ..होता है ऐसा भी बचपन
कविता पढ़कर बचपन की यादों में खो गया, स्वागतम
सच में बचपन की यादें ताजा हो गईं।
aap ki rachna padh kar aankhon se aansu aa gye padh kar aisa lga kya aisa hi hota hai bachhapn
hansa
aap sabhi ka bahut bahut dhanybad...
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