रविवार, 13 मार्च 2011

इंसान फिर क्यों सब करता रहता,मर मर कर जीता रहता



दिन
बीत गया,रात आयी
लगा जैसे रोज़ के
झंझावत से मुक्ती मिल गयी
मगर रात अभी बाकी है
कल क्या करना
याद करना ज़रूरी है
फेहरिश्त
कल के कामों की
बन गयी
अब सोना भी ज़रूरी है
मगर नींद नहीं आ रही
कई बातें ख्यालों में आ रही
कब आँख लगी खबर
नहीं हुयी
सुबह आँख खुली
वो ही कहानी दोहरायी गयी
रोज़ की रेलम पेल
चालू हुयी
कुछ बातें ठीक हुयी,
कुछ ठीक ना हुयी
दिन भर ज़द्दोज़हद
चलती रही
निरंतर दिन ऐसे ही
कटता
सुबह शाम का पता
ना चलता
इंसान यूँ ही ज़िन्दगी
काटता रहता
सवाल मन में आता
इंसान फिर क्यों सब
करता रहता
मर मर कर जीता 
 रहता
हर दिन नए 
विश्वाश से उठता
उम्मीद में जीता 

जाता
13—03-2011
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर

6 टिप्पणियाँ:

rubi sinha ने कहा…

अच्छी कविता

Kunal Verma ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति

News And Insights ने कहा…

दिनचर्या की याद दिलाती हुई कविता है|

देवेंद्र ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति। सिर्फ इतना ही सुझाव है कि हर नया दिन हमारा नया जीवन है और कर्म हेतु एक नया अवसर ।

kirti hegde ने कहा…

achchha prayas..

rubi sinha ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति

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