वो रंग बिरंगी
नन्ही सी चिड़िया
रोज़ मेरे घर में आती
बागीचे की मुंडेर पर बैठती
चहचाहट से ध्यान आकर्षित
करती
चोंच में कभी तिनका
कभी धागा साथ लाती
इधर उधर उधर देखती
शशंकित सी
धीरे धीरे बागीचे के कोने में
लगी बेल में जा छुपती
निरंतर होशियारी से घोंसला
अपना बनाती
थोड़ी देर में चौकन्नी बाहर आती
इधर उधर नज़रें घुमाती
फुर्र से उड़ जाती
कुछ समय बाद फिर लौटती
तन्मयता से वही कहानी
दोहराती
खुद का आशियाना बसाने की
उम्मीद में
निरंतर शिद्दत से लगी रहती
उसे कहाँ पता
मनुष्य की घाघ नज़रों से
नहीं बच सकेगी
इक दिन नज़र पड़ने पर उसकी
उम्मीद टूटेगी
घोंसले की जगह खाली होगी
किसी को पनपते नहीं देखने की
इंसानी फितरत जारी
रहेगी
07—03-2011
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर
4 टिप्पणियाँ:
धीरे धीरे बागीचे के कोने में
लगी बेल में जा छुपती
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सुन्दर अभिव्यक्ति, अच्छी कविता.
क्या खूब कही चिड़िया की कहानी, सुन्दर रचना आभार.
बहुत खूब
सुन्दर रचना आभार.
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