बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

अनसुलझी वो ......... शिव शंकर


मुझमें ढूढ़ती पहचान अपनी


बार बार वो ,


जान क्या ऐसा


था


जिसकी तलाश थी उसको ,


अनसुलझे सवाल को


लेकर उलझती जाती


कभी मैंने साथ


देना चाहा था


उसकी खामोशियों को,


उसके अकेलेपन को ,


पर


वो दूर जाती रही


मुझसे ,


अचानक ही एक एहसास


पास आता है


बंधन का


बेनाम रिश्ते का ,


जिसमें दर्द है ,


घुटन है ,


मजबूरियां है,


शर्म है ,


तड़प है ,


उम्मीद है ।मैं समझते हुए भी


नासमझ सा


लाचार हूँ


उसके सामने


शायद बयां कर पाऊं कभी


उसको अपने आप में ।

1 टिप्पणियाँ:

हरीश सिंह ने कहा…

आदरणीय शिवशंकर जी, आप यहाँ पर आये वह भी एक सुन्दर रचना के साथ आपका दिल से स्वागत, आपने हमारे निमंत्रण का मान रखा इसके लिए हम आपके ऋणी है. हम एक अपना ब्लॉग परिवार बनाना चाहते हैं. हमारी मंशा पद की जिम्मेदारी देकर किसी को भी दायरे में नहीं बाँधने की नहीं है . परिवार में बड़ा वही कहा जाता है जो अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से निभाता है. इस ब्लॉग में सहयोग देने वाले बराबर की जिम्मेदारी लेंगे. परिवार में जो सदस्य बड़ा है. उसका सम्मान होता है. आप सभी लोग हमसे बड़े है, हम आप सभी का सम्मान करते हैं. जहा प्यार होता है, तकरार भी वही होता है. यदि सभी एक दूसरे की भावनाओ का सम्मान करेंगे तो हर तकरार के बाद प्यार और बढ़ता जायेगा. एक दिन हमारा परिवार बहुत बड़ा और बहुत ही मजबूत होता जायेगा. आप सभी अपने को इस परिवार का मुखिया मानकर इस परिवार को मजबूत बनाये यही मेरी कामना है. इस परिवार में कभी किसी भी पद का बंटवारा नहीं होगा. अपनी अमूल्य राय से हमें हमारी भूलो का एहसास कराते रहे. धन्यवाद.


हरीश सिंह मिथिलेश धर दूबे

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